महि पर लहु सरि बहती कल-कल. राह भटकते आज पखेरू, अटल खड़ा है दुःख का सुमेरु. आएँ कितनी भी विपदाएँ, इन सबसे हम न घबराएँ. पुरानंत को आज बांधकर, दुर्लभ को हम सुलभ बनाये, उठो पुनः नवविश्व सजाये, उठो पुनः नवविश्व सजाये...
कॉलेज से लौटने के पश्चात् रोज के मुताबिक प्रोफ़ेसर ज्ञानीजी घूमने निकले. रास्ते में दूर से बूढा पीपल और उसके नीचे बेठे दुक्खी काका दिखाई दे रहे थे. धंसे हुए गाल, झुर्रियों से भरा चेहरा, सिर पर सफेदी का जंगल और लगातार चलने वाली खांसी, यही कक्का की पहचान थी. दो बरस पहले के भूकंप में उनके बेटे-बहु दोनों की बलि चढ़ गयी थी. बीवी तो बेटे का मुह देखने से पहले ही परलोक सिधार गयी थी. फैक्ट्री में काम करते समय हुए विस्फोट से उनके दोनों हाथो की भेंट प्रभु को चढ़ गयी थी. उन्हें देख कर शेक्सपियर भी अपनी यह बात नकार देता कि "नाम में क्या रखा है ?". अब इस गरीबी भरी बोझिल जिन्दगी में उनका एकमात्र सहारा था, ८ बरस का पोता मुन्ना ! बाबू साब राम-राम ! सोचते-सोचते प्रोफ़ेसर साब को ध्यान ही नहीं रहा कि कब पीपल के सामने पहुँच गए. राम-राम कक्का ! और सुनाओ सब ठीक-ठाक है न ? प्रोफ़ेसर साब ने उत्तर दिया. कक्का बोले "अब का ठीक है ? अपन मुन्ना पड़ोस के बनिया के इते रोजनदारी पर काम करत हतो. परसों कोई अफसर लोग आये और बच्चा-मजूरी के नाम पर बनिया से ५०० रूपया जुरमाना ले लओ, साथ में मुन्ना को काम भी छुड़वा दओ. मुना वापिस काम पर गओ तो बनिया ने ओको भगा दओ. अब आपई बताओ बाबुसाब ! जे बच्चा-मजूरी अपराध है या गरीबन कि दो जून कि रोटी छीनना ?” और मोटी-मोटी किताबे लिखने वाले प्रोफ़ेसर ज्ञानीजी इस छोटी सी बात का उत्तर भी न दे पाए .
पुरातन काल से ही भारतीय संस्कृति समय के अनुरूप स्वयं को अनुकूलित करने वाले अलंकारों से परिपूर्ण है. यही कारण है की यह,समय बढने के साथ-साथ संवर्द्धित होती रही है. इन्ही गुणों में से बहुमूल्य रत्न के समान गुण है "जुगाड़" ! हमारी दादी माँ कहा करती थी, बाबा आदम के ज़माने से ही जुगाड़ का प्रयोग धड़ल्ले से होता आ रहा है.फर्क सिर्फ इतना है कि उस वक़्त यह "कृपा" या "आर्शीवाद" नाम से जाना जाता था.वक़्त बदलता रहा,युग बदले किन्तु जुगाड़ नाम कि यशस्वी परंपरा नहीं बदली. अपितु आज के युग में इसके पर्यायवाची शब्दों कि संख्या में खरपतवार कि तरह वृद्धि हुई है. कहा जाता है "जीवन दो पहियों कि गाड़ी के समान है" तो यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इसे घर्षणमुक्त चलने के लिए जिस लुब्रिकेंट अर्थात स्नेहक तेल कि आवश्यकता पड़ती है, वही जुगाड़ है. आज के समय में जुगाड़ नाम कि महत्ता इतनी है कि हमारे लगभग हर प्रदेश के साथ-साथ देश कि केंद्र सरकार भी जुगाड़ से ही चलती है. सरकारी महकमों में नौकरी लेने की लालसा लिए उम्मीदवारो से सामान्यतः यह प्रश्न पुछा जाता है कि "कोई लैटर लाये हो "? यह भी जुगाड़ का समानार्थी है. हिन्दुस्तानी भाषाओ को पिछड़ा समझ आंग्ल भाषा के प्रयोग को अपनी शान समझने वाले तथाकथित विद्वान हिन्दुस्तानियो के लिए जुगाड़ शब्द का पर्याय "जैक" एवम "सेटिंग" है. बच्चे का स्कूल में अद्मिस्सिओं करवाना हो, कॉलेज में पेपर पास कराना हो या नम्बर बढ़वाना हो अर्थात शिक्षा संबधी अधिकांश कार्यो में जुगाड़ का उपयोग "जैक" एवम "सेटिंग" शब्द के रूप में होता है. उच्च पदासीन व्यक्तियों अर्थात लालबत्तिधारी वी.आई.पी. बन्दों के मध्य काम निकलवाने के लिए जुगाड़ का प्रयोग "व्यवस्था" नाम से होता है. सभ्रान्त वर्ग "व्यवस्था" शब्द का उपयोग सोसाइटी में रुतबा बढाने के लिए या नौकरी में प्रमोशन पाने के लिए किया करते हैं. यदि आपको सरकारी विभागों की परिक्रमा करने से दर लगता हो या बाबुओ द्वारा ली जाने वाली दक्षिणा से बचना हो तो हर मर्ज की एक ही दवा है "जुगाड़". हमारे नेताओ के लिए जुगाड़ शब्द तो संजीवनी बूटी के समान है. हमारे नेता चुनाव में टिकेट पाने के लिए, टिकेट पा कर चुनाव जीतने के लिए, जीतकर मंत्री पद पाने के लिए जुगाड़ नाम की माला जपते हैं. यही नहीं, टिकेट न मिले तो अगले की टिकेट कटवाने के लिए भी जुगाड़ का इस्तेमाल किया जाता है. अब्राहम लिंकन का कहना कुछ भी हो परन्तु अपनी समझ में "जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए किये जाने वाला कर्म ही जुगाड़ है". अब बात आती है हमारे भाई लोगो की, ये हमारे आजू-बाजू, आमने-सामने, भाई-बहन वाले भाई नहीं वरन वर्तमान समय में प्रचलित मुम्बईया स्टाइल के भाई अर्थात हर गली कूचो, हर मोहल्ले में एक-दो की संख्या में पाए जाने वाले गुंडा तत्वों, माफ़ कीजिये ! आसामाजिक तत्वों की श्रेणी का प्रतिनिधित्व करते है. इनकी जुबां में जुगाड़ शब्द का उच्चारण "पौअवा" है. हमारे छात्र नेता भी चेले-चपाटियो पर धाक ज़माने के लिए अपने-अपने पौअवो की शोर्यगाथाये सुनते हुए धुए की गिरफ्त में हर टपरे पर मिल जाते हैं. इस जुगाड़ नाम के तीन अक्षर के लघु शब्द की आत्मा में असीम मर्म छुपा हुआ है, जिसकी व्याख्या करना मुझ जैसे साधारण मानव के लिए तो संभव नहीं है, हाँ अगर रहीम कवि आज जीवित होते तो शायद यही कहते - "रहिमन जुगाड़ राखिये, बिनु जुगाड़ सब सून ! जुगाड़ गए ना उबरे , मोती मानुष चून !!
कुछ दिनों पहले अखबार में एक खबर छपी थी,"जीव संरक्षण के लिए स्पेशल टास्क फोर्स गठित की गयी". संयोग से हमारे पड़ोसी रेंजर शर्माजी को उसका अध्यक्ष बनाया गया था. शर्माजी ने इसके लिए जी जान से मेहनत की. नागपंचमी के दिन सारे साँपो को पिटारे से मुकत करा कर सारे सपेरो को जेल में बंद करवाया.
कल फिर अखबार में एक खबर छपी. "जीव सरंक्षण के क्षेत्र में उत्कृष्ठ कार्य करने के लिए शर्मा जी को पुरस्कृत किया गया एवम पदोन्नति दी गयी " शर्माजी ने आज उसके उपलक्ष्य में जोरदार पार्टी दी है. खाने में स्पेशल आइटम जंगली सूअर का कबाब है. और अब लगातार खाने का लुत्फ़ लेते हुए शर्माजी को जीव सरंक्षण के लिए मुबारकबाद मिल रही है...
एक पूरा देशी, विदेश जाकर परदेशियों के बीच बीमार पड़ गया !
लाल-मुँहे डॉक्टरो ने बीमारी का खूब पता लगाया, परन्तु जब कारण समझ में नहीं आया, तो खुद देशी ने उसका कारण बतलाया, कहा, मेने पूरा जीवन गटर जैसा पानी पीते-पीते बिताया है, लेकिन पहली बार आज मिनरल वाटर को हाथ लगाया है !!
पूर्व मंत्री जी ने अपने क्षेत्र का दौरा लगाया, सड़को पर गड्डो से परेशान होकर नेताजी ने फरमाया, इन गड्डो से ये सिद्ध होता है, की ये सरकार भ्रस्टाचार के दलदल में सनी है, तभी किसी आदमी की सामने से आवाज आई, ये सड़क आप के ही टाइम की बनी है !!!
चन्दन की टहनियों पर जलने वालो, कुछ चूल्हे ऐसे भी हैं जिन्हें लकड़ी नसीब नहीं ! तमन्नाओ में जलाभिषेक करने वालो, यहाँ प्यास बुझने की तमन्ना है फिर भी बूंद नसीब नहीं !!