Thursday, July 16, 2009

नवसृजन

बरस रहे अश्रु के बादल,
महि पर लहु सरि बहती कल-कल.
राह भटकते आज पखेरू,
अटल खड़ा है दुःख का सुमेरु.
आएँ कितनी भी विपदाएँ,
इन सबसे हम न घबराएँ.
पुरानंत को आज बांधकर,
दुर्लभ को हम सुलभ बनाये,
उठो पुनः नवविश्व सजाये,
उठो पुनः नवविश्व सजाये...

1 comment:

  1. poem to achchi ha i...
    lekin jara kam samjh aayi hme.. :D

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