बरस रहे अश्रु के बादल,
महि पर लहु सरि बहती कल-कल.
राह भटकते आज पखेरू,
अटल खड़ा है दुःख का सुमेरु.
आएँ कितनी भी विपदाएँ,
इन सबसे हम न घबराएँ.
पुरानंत को आज बांधकर,
दुर्लभ को हम सुलभ बनाये,
उठो पुनः नवविश्व सजाये,
उठो पुनः नवविश्व सजाये...
राह भटकते आज पखेरू,
अटल खड़ा है दुःख का सुमेरु.
आएँ कितनी भी विपदाएँ,
इन सबसे हम न घबराएँ.
पुरानंत को आज बांधकर,
दुर्लभ को हम सुलभ बनाये,
उठो पुनः नवविश्व सजाये,
उठो पुनः नवविश्व सजाये...
poem to achchi ha i...
ReplyDeletelekin jara kam samjh aayi hme.. :D